परिचय

आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनिश्री १०८ नियमसागर जी महाराज का जीवन संक्षिप्त परिचय !

ऐसा देखा जाता है की मनुष्य जीवन में परिवर्तन के लिये स्कूल पाठ्यक्रम में महान पुरुषो के जीवन चरित्र का समावेश किया जाता है ताकि विद्यार्थी जिसे ग्रहण कर अपने जीवन में भी उच्च आदर्श को स्थापित कर सकें । परमार्थ उत्थान के लिए क्या यह आवश्यक नहीं है ? यह प्रश्न प्रत्येक भव्य जीव के लिए अन्तरंग का विषय है या यो कहें कि कब  लाब्धि आती है तो ऐसा सहज ही हो जाता है । फिर भी अन्तरंग के लिये प्रेरणा आवश्यक है । यहाँ हमारे प . पू . श्री 108 नियम सागरजी महाराज के जीवन की संक्षिप्त में एक घटना प्रस्तुत की जा रही है । 

राग से वीतराग का प्रवास 

उम्र १८ वर्ष - जनवरी १९७५ के समय वैराग्य रूपी मन में  हलचल चल रही थी घर से बहार जाने की  तैयारी चल रही थी । यह घटना उनके जन्म स्थली पवन भूमि सदलगा  कर्नाटक की है ।

उस समय प .पू . श्री सुबल सागर जी महाराज का सदलगा ग्राम में वास्तव्य था और ये उनसे परिचित और प्रभावित थे ।  प .पू . श्री सुबल सागर जी महाराज एक दिन संसार - बिन्दु कथा का प्रवचन कर रहे  थे, उस समय आप भी उस कथा को ग्रहण कर रहे थे ।  आपके मन में इस कथा को सुनकर वैराग्य अंकुर उदित हुआ (वाचकगणों ने भी संसार - बिन्दु कथा सुनी होगी विषयान्तर  न हो इसलिए इस कथा को नहीं दे रहे है ) प .पू . महाराज जी  के निर्देश से  इनके मन में उस संघ में ज्ञानार्जन और दीक्षा की तैयारी चल रही थी । इनको संघ में ६ वर्ष रहकर अध्ययन करना था फिर उसके बाद दीक्षा  थी ।

एक दिन ये सदलगा बस स्टेण्ड पर खड़े हुए थे , अनायास श्री पारस जी इनसे पूछते हैं  कि आप प .पू .श्री १०८ सुबल सागर जी के संघ में जानेवाले हो ? तो इन्होंने अपने मन की स्थिति हाँ स्वरुप में दे दी । इसके बाद श्री पारस जी ने कहा कि अजमेर ( राजस्थान ) में प . पू . श्री १ ० ८ विद्यासागर जी महाराज है , वहाँ आपको ले चलते है । अध्ययन भी हो जायेगा और दीक्षा भी हो जायेगी । लेकिन सुबल सागर जी के संघ में शामिल होने का विचार बना चुके थे । वे बुरा नहीं माने इसलिए ये व पारसजी मिलने गए और अपने विचारों से अवगत कराया । प . पू . श्री १ ० ८ सुबल सागर जी महाराज ने सुनकर तुरंत स्वीकृति दे दी और शुभ तिथि भी तय कर दी । वह ५ फरवरी १९७५ का दिन था जब इन्होंने मिरज से अजमेर की यात्रा प्रारंभ कर दी थी ।

मिरज से ट्रेन द्वारा मुंबई रतलाम होकर अजमेर पहुँचे, वहा मालुम हुआ कि प . पू . श्री . १ ० ८ आचार्य श्री विद्यासागर जी का विहार हो चुका है । वहा से ६० कि . मी . दूर किसानगढ़ में विराजमान थे । इन्होंने तुरंत किसानगढ़ की ओर यात्रा शुरू रखी और रात्रि साढे दस बजे आचार्य श्री के दर्शन हुए । सर्दी का मौसम था आचार्य श्री एकान्त में लीन थे । वही उनसे मौन स्थिति में वार्तालाप हुई ।

वार्तालाप का संक्षिप्त सार इस प्रकार है
१ . शिक्षा कितनी हुई है ............... बी. एस. सी. (द्वितीय वर्ष )
२ . ज्ञानार्जन के बाद क्या .............हम तुरंत दीक्षा चाहते हैं ।
३ . कटिंग करवानी होगे - करोगे .....तुरंत हाँ ।
तो ठीक है कल कटिंग करवा कर ड्रेस बदलना ।  आचार्य श्री आज्ञानुसार दूसरे दिन कटिंग व ड्रेस बदल के साथ संघ में प्रवेश हुए । फिर ब्रम्हचर्य का लेकर अध्ययन चालू कर दिया । उस समय संघ में सिर्फ एक क्षुल्लक जी व तीन ब्रम्हचारी थे ।

कुछ समय के उपरान्त आचार्य श्री का विहार किसनगढ़ से मथुरा - आगरा होते हुए फिरोजाबाद में चातुर्मास हुआ । चातुर्मास के बाद इनकी दीक्षा होनी थी लेकिन अचानक चारों ब्रम्हाचार्यो को तीव्र बुखार आ गया उनमें से किसी एक का स्वास्थ्य जादा ख़राब हो गया इन्हें उनकी सेवा के लिये दो - तिन महिने रुकना पड़ा । आचार्य श्री का फिरोजाबाद से सोनागिरि  की ओर विहार हो गया था |  ये वहाँ पर तीन महिने बाद आचार्य श्री के पास पहुँचे और दीक्षा के लिये निवेदन किया ।  आचार्य श्री ने सहमति देते हुए १८ दिसम्बर १९७५ की तिथि निश्चित की । इस प्रकार सोनागिरि जी सिद्ध क्षेत्र में बाहुबली भगवान की  मूर्ति के सामने इनकी क्षुल्लक दीक्षा हुई ।

आपके जीवन में भी ऐसी घटना हो और आप कल्याण मार्ग में लग सकें ऐसी भावना रखते हैं ।